Tuesday, October 23, 2018

सुयोग्य वर

प्रियंका एक बेहद ही पढ़ी लिखी और खुले विचारों वाली लड़की थी मगर एक मध्यमवर्गीय परिवार में उसके विचारों को समझने वाला कोई नही था। माँ गृहणी थी और पिता जी एक सरकारी स्कूल में क्लर्क।परिवार का माहौल बिल्कुल साधारण था।दुनिया की चमक दमक से दूर। आज के लोगो को जो चाहिये वो है दिखावा। जो उसके परिवार में था नही। पैसे की कीमत क्या होती है प्रियंका भलीभांति जानती थी। घर मे कमाने वाला एक और इतना ख़र्चा फिर भी पापा को कभी परेशान नही देखा था उसने कभी कुछ नही कहते अपने बच्चो से या पत्नी से। आज प्रियंका की शादी के दिन न जाने पापा क्यूँ बहुत परेशान थे सब तो घर के कामो में व्यस्त थे।प्रियंका अपने कमरे से पापा को देख रही थी बार बार घड़ी पर नज़र डाल कर परेशान से हो रहे थे अचानक लैंडलाइन पर फ़ोन आया उधर से प्रियंका के ससुर का फ़ोन था बोल रहे थे कि 5 लाख रुपया तैयार रखना वरना बारात वापिस ले जाएंगे वो। उधर कमरे में दूसरे फ़ोन से ये सब सुन रही थी प्रियंका। आंखों से आंसू बह रहे थे पापा के भी और प्रियंका के भी। कभी पापा को रोते नही देखा था उसने। दिल मे गुस्सा भरा हुआ था । बारात दरवाजे पर थी और उसके ससुर पापा की तरफ इशारे कर के बुला रहे थे। सुधीर जिसकी शादी प्रियंका से हो रही थीं। शायद वो इन सब से अनजान था।
"देखिये समधी जी हमने अपने बेटे को बहुत पढ़ाया लिखा कर इस लायक इसलिए बनाया ताकि उसकी शादी अच्छे से हो और हैसियत नही थी आपकी तो क्यूँ शादी का रिश्ता तय किया ?" सुधीर के पापा तपाक से बोले।
"ओह्ह पापा ! तो आप मुझे बेच रहे है ?"
सुधीर भी कमरे में आ गया।
"ये तो अच्छा हुआ कि प्रियंका ने आप की सारी बाते मुझे बता दी और अंकल इनकी तरफ से माफी मांगता हूं मैं ! क्षमा कीजियेगा। और चलिये यहाँ से फेरो के लिए देर हो रही है। अंकल आप परेशान मत हो अब प्रियंका मेरी जिम्मेदारी है।"
ये सुनकर पापा के चेहरे पर कुछ सुकून दिखा, प्रियंका को पापा की पसन्द पर गर्व भी !


द्वारा लिखित

आकांक्षा पाण्डेय

कहानी का स्रोतhttp://storymirror.com
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जुड़वाँ बहनों का आत्मविश्वास

एक गाँव में दो जुडवाँ बहनें रहती थी। वे दोनों बिल्कुल अनाथ थीं। गाँव वालों ने ही उनका पालन-पोषण किया। जैसे-जैसे वे बड़ी होने लगी तो उन्हें दूसरों से लेकर खाना बिल्कुल अच्छा नहीं लगता था। दोनों ने मिलकर लोगों के घर में काम करना आरंभ कर दिया। इस प्रकार लोगों ने उन्हें पैसे, कपड़े, भोजन आदि देकर उनकी सहायता भी की और उनके आत्मसम्मान को भी बनाए रखा।
धीरे-धीरे दोनों बहनें काम करने में इतनी चुस्त हो गई कि अब वे सिलाई-कढ़ाई भी करने लगी। गाँव के सभी लोग उनसे ही अपने कपड़े सिलवाते। दोनों बहनों की लगन, मेहनत व आत्मविश्वास ने बहुत जल्दी ही उन्हें धन-दौलत से परिपूर्ण कर दिया। मेहनत की कमाई हुई दौलत से उन्होंने एक सिलाई-सैंटर खोला और अपने ही गाँव की बहनों को अपने साथ काम सिखाया। अब उनके साथ अन्य ग्रामीण महिलाएँ भी थी। इस प्रकार उन दो अनाथ जुडवाँ बहनों ने हिम्मत न हार कर अपने ही गाँव में एक ऐसी मिसाल कायम की, जो भारत देश की हर बेटी को सिर ऊँचा करके समाज में जीने हेतु प्रेरित करती है।
उनके इस अथाह परिश्रम से हम सबको भी समाज में मिलकर रहने व एक-दूसरे की निस्वार्थ भाव से सेवा करने की प्रेरणा मिलती है। सच है कि ‘‘ स्वयं में हो यदि आत्मविश्वास ! पूर्ण होती है हर एक आस !’’


द्वारा लिखित


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अर्धांगिनी


अर्धांगिनी/wife
                                   
अपने कार्यालय के वातानुकूलित कक्ष मे बेठै सतीश की दृष्टि मेज पर रखे आमन्त्रण पत्र पर पड़ी। उसकी पत्नी मीरा अपना निजी व्यापार आरम्भ करने वाली थी, जिसका उद्घाटान इस सोमवार को था। वह आमंत्रण पत्र उसी समारोह का था। मीरा और सतीश जिन परिवारो में पले-बढ़े वे एक-दूसरे से पूरी तरह से भिन्न थे। सतीश के परिवार के मुखिया यानि कि उसके पिता ने अपनी संतानो पर कईं तरह की बन्दिशे लगा रखी थी। उन्हे कोई भी निर्णय स्वयं लेने की छूठ नहीं थी। उन के जीवन से सम्बन्धित किसी भी बात पर, चाहे बात उन की शिक्षा की हो या विवाह की; निर्णय लेने का अधिकार सिर्फ पिताजी को ही था। जब कि मीरा के माता पिता ने उसे हर तरह की छूठ दे रखी थी। मीरा के पिता का वस्त्रों का व्यापार था। व्यापार मे हानि होने के कारण परिवार की आर्थिक दशा खराब हो गयी। सतीश का परिवार सम्पन्न था एवम् उसके सभी रिश्तेदार सरकारी कार्यालयों मे उच्च पदो पर सुशोभित थे। इसी कारण जब मीरा विवाह के पश्चात सतीश के घर आयी तो उसे कुछ खास सम्मान न मिला। पर मीरा में वो गुण थे जो एक आदर्श भारतीय नारी के लिए अनिवार्य थे- सहनशीलता, क्षमा और धैर्य। उसने हर अपमान को सहन कर लिया पर परिवार में किसी के लिए भी मन में मैल न रखा। वह अपने पिता कि व्यापार मे हुई पराजय को अपने कठिन परिश्रम से विजय मे बदलना चाहती थी। श्री धीरूभाई अम्बानी उसके आदर्श थे और वह भी उनकी तरह वाणिज्य की दुनिया मे सफ़लता के शिखर छूना चाहती थी।
अचानक सतीश को उन की शादी की वो पहली रात याद आ गयी। जब सतीश अपने कक्ष मे पहुँचा तो दुल्हन के वस्त्रो मे पंलग पर बैठी मीरा उसकी ड़ायरी पढ़ रही थी। वही ड़ायरी जिस मे वह कथाऐं लिखा करता था जब वह दसवीं कक्षा मे था।
"मुझे नही पता था कि मेरे पतिदेव एक लेखक भी है।" सतीश को देख मीरा ने पंलग से उठते हुए कहा।
"तुम्हें ये ड़ायरी कहाँ से मिली?"
"यहीं आपकी अलमारी मे रखी हुई थी।"
"उसे वापस वहीं रख दो। कहीं पापाजी ने देख लिया तो उन्हें अच्छा नहीं लगेगा।"
"पर ये कहानियाँ तो बहुत अच्छी हें, फ़िर वे क्यों नही पसंद करेंगे?"
"मुझे आज भी वो दिन अच्छी तरह से याद है जब मैं दसवीं कक्षा में था और मुझे कथा रचना प्रतियोगिता में प्रथम स्थान प्राप्त हुआ था। मैंने घर आकर ये बात बड़े हि हर्ष के साथ पापाजी को बतायीं तो उन्होने कहा- अपनी पढ़ाई पर ध्यान दो सतीश और एक अच्छी नौकरी प्राप्त करने का प्रयास करो। तो ही तुम्हें जीवन मे सफल बन सकोगे। चन्द कागज़ों पर कलम चला कर जीवन निर्वाह के लिए धन कमा सकोगे? भविष्य में अपने परिवार का पालन पोषण कर सकोगे? हमारे परिवार के अन्य सदस्यों की तरह सम्मान के पात्र बन सकोगे? ये सब कर के क्या मिलेगा तुम्हें? तुम्हारी रचनायें कुछ पत्र-पत्रिकाओं में छप गईं तब भी एक परिवार का निर्वाह तो न हो पाएगा।"
सतीश ने सिर झुका कर कहा, "बस फिर उसी दिन मैंने पापाजी को वचन दिया कि मैं उनका स्वप्न साकार कर के दिखाउंगा। उसके बाद मैं सिविल सर्विस की पढ़ाई मे जुट गया। मैंने इस ड़ायरी को फिर कभी मुड़ कर नहीं देखा।"
"आप हत्यारे हैं सतीश!"
मीरा की ये बात सुन कर वह दंग रह गया।
"आपने अपने अंदर के लेखक को मार ड़ाला।"आँखों में आँसू भर कर मीरा ने कहा।
सतीश ने एक ठण्डी आह भरी और सोचा- शायद मीरा सच ही कह रही थी। अब वह अपने आप को ही पहचान नहीं पा रहा था। अब कोई और बन चुका था वह। शायद उसकी आत्मा का एक अंश मृत हो चुका था।
सतीश ने आमन्त्रण पत्र को खोल कर पढ़ा और वापस मेज़ पर रख दिया। वह मीरा को घर-खर्च के लिए जो रूपए दिया करता था उसमे से वह तिनका-तिनका जोड़ कर अपने व्यापार के लिए पूँजी जमा करती रही। और फिर जब एक छोटी रकम जमा हो गयी तो उसने अपनी जान पहचान की कुछ महिलाओं के साथ मिल कर अचार बनाना और बेचना शुरू कर दिया। उसके बनाए अचार के सब कायल थे। धीरे-धीरे जब व्यापार बढ़ा तो उसने अपना छोटा-सा कार्यालय भी खोल लिया। और आने वाले सोमवार को उसकी फैक्ट्री का उद्घाटन है। सचमुच अपने दृढ़-निश्चय और अथक परिश्रम के बल पर उसने अपने पिता की हार को जीत में बदल दिया।
सतीश को अपनी पत्नी पर बड़ा गर्व महसूस हुआ। वह उठा और उसने अपने आप को दर्पण मे देखा। पर उसे उस दर्पण में एक कलेक्टर नहीं बल्कि एक हत्यारा नज़र आया। उसकी आत्मा ने उसे दुत्कार कर कहा, "मीरा बहुत ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं है। उसके पास आय का कोई मार्ग भी नहीं था। फिर भी अपने दृढ़-संकल्प के बल पर उसने अपना-सपना पूरा कर लिया। और तुम... तुम कायर हो सतीश। असफलता के डर से तुम ने अपना मार्ग ही बदल लिया। अपने जीवन की सबसे बड़ी आकांक्षा से मुँह मोड़ लिया! तुम्हें लज्जा नहीं आती अपने-आप को मीरा का पति बताते हुए?"
सतीश ने अपनी आँखें कस कर बन्द कर ली। कुछ क्षण पश्चात उसने अपनी आँखें खोली और खोलते ही एक बार फ़िर से कागज़ और कलम उठा लिया। आज बहुत दिनों बाद उसने पहली बार जो लिखा वो अपना इस्तीफा था। इस्तीफा-अपने पिता की, अपने परिवार और समाज की महत्वाकाक्षाओं से, जो वर्षों से उसकी आत्मा पर बोझ बन कर पड़ी हुई थी। इस्तीफा देकर वह सीधे घर गया और अपनी ड़ायरी उठा ली। उसके मन में एक अजीब-सी प्रसन्नता थी जैसै वर्षों से मृत पड़े उसके शरीर के किसी अंग में प्राण वापस आ गए हों। अपनी ड़ायरी के पहले पृष्ठ पर उसने लिखा-
समर्पित - मेरी अर्धांगिनी मीरा को
जो सच्चे अर्थो में मेरी अर्धांगिनी है। जिसकी प्रेरणा से मेरे शरीर के उस अर्धांग में प्राण लोट आए जो वर्षों से मृतप्राय था। वह मेरी इस रचना की प्रेरणा-स्त्रोत है। उसने ही मेरे अंदर के लेखक को पुर्नजीवित किया है। अगर वह मेरी अर्धांगिनी बन मेरे जीवन में न आती तो मैं जीवन भर स्वयं अपनी ही हत्या के पाप का बोझ ढ़ोने पर विवश हो जाता। परन्तु उसकी प्रेरणा ने मेरे निर्वाण का मार्ग प्रदर्शित कर दिया।


द्वारा लिखित


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इटली का एक मित्र

मैं पेशे से एक मरीन इंजिनियर हूँ | दिसंबर १९७७ में बतौर जूनियर इंजिनियर मैंने अपने कैरियर की शुरुआत भारतीय नौवहन निगम के जहाज “ननकोरी” पर की | अपने काम की वजह से मुझे हमेशा जहाज पर ही रहना पड़ता था और जहाज के साथ साथ एक बंदरगाह से दूसरे तक जाना पड़ता था | उन दिनों १२ महीने जहाज पर काम करने के बाद एक महीने की छुट्टी मिलती थी | १९८० में मेरी शादी हुई, पहली बेटी का जन्म फरवरी १९८४ में, नवंबर १९८५ में दूसरी बेटी और जून १९९० में बेटे का जन्म हुआ | आर्थिक मजबूरियों के चलते शुरू के कुछ साल नौकरी छोड़ना मुमकिन नहीं था | लेकिन अपनी पत्नी और बच्चों की मुझे बहुत याद आती थी | खासकर मैं अपने बच्चों का बचपन और उनका बढ़ना बहुत मिस करता था | यही वजह थी कि १९९२ में मैंने जहाज की नौकरी छोड़ने की ठान ली |

सन १९९२ में, मैं स्टीम टर्बाइन संचालित टैंकर “अल्की” नाम के जहाज पर चीफ इंजिनियर था | मेरा जहाज दुबई के एक रिपेयर यार्ड, दुबई ड्राईडॉक्स (नया नाम ड्राइडॉक्स वर्ल्ड) में मरम्मत के लिये लाया गया | उन दिनों हमारे जहाज के इंजिनियर सुपरिन्टेन्डेन्ट श्री मोस्किनी, जो इटालियन मूल के थे, जहाज की मरम्मत के लिए दुबई आए हुए थे | इसके अलावा, मरम्मत के बाद, जहाज के तकनीकी प्रबंधन का नियंत्रण भी एक दूसरी कंपनी को सौंपा जाना था । मैं मोस्किनी साहब को पिछले ४–५ वर्षों से अच्छी तरह से जानता था, लेकिन केवल एक इंजिनियर सुपरिन्टेन्डेन्ट के रूप में । मुझे कभी उनके साथ मिलकर काम करने का मौका नहीं मिला । लेकिन अल्की पर मुख्य अभियंता के रूप में कार्य काल के दौरान, मेरे और उनके बीच सम्बंध काफी गहरे और दोस्ताना बन गये |

एक दिन चाय पर चर्चा के दौरान, मैंने मोस्किनी साहिब को बताया कि अल्की मेरा आखिरी जहाज होने जा रहा है | अब आगे और सेल करना मुमकिन नहीं होगा | इसके बाद मैं किनारे पर ही कोई काम करने की सोच रहा हूँ | उनको मैंने अपनी दुविधा बताई और साथ ही मैंने इस सन्दर्भ में उनकी मदद भी मांगी | तुरंत ही उन्होंने अपने कुछ संपर्कों को फोन घुमाये और फिर बोले, शाम ५ बजे बायो डाटा के साथ तैयार रहना | उसी दिन शाम को मोस्किनी साहिब मुझे एक सर्वे कम्पनी के ऑफिस में मिलाने लेकर गये | लेकिन चीफ सर्वेयर से मिलकर पता चला कि उन दिनों वहां कोई जगह खाली नहीं थी | फिर भी उन्होंने भविष्य का वादा कर मेरा बायो डाटा रख लिया |

अगले दिन मोस्किनी साहिब सुबह ८ बजे जहाज पर आये | आते ही बोले, आजकल दुबई ड्राईडॉक्स का विस्तार चल रहा है | तुम एक बात बताओ, तुम्हारा झुकाव टेक्निकल में है या कमर्शियल में है | शिपयार्ड में दोनों विभागों में ही जगह खाली हैं | मैंने उनको बताया कि मुझे दोनों विभागों में ही कोई दिक्कत नहीं है फिर भी अगर हो सके तो मैं कमर्शियल को प्राथमिकता दूंगा | मोस्किनी साहिब ने तुरंत ही कमर्शियल विभाग में अपने किसी सम्पर्क को फोन घुमाया और मेरे बारे में बात की | फोन ख़त्म करने के बाद बोले, शिपयार्ड के कमर्शियल विभाग में मेरे एक बहुत अच्छे मित्र हैं और वो तुमसे आज शाम ४ बजे मिलना चाहते हैं | शाम ४ बजे हम दोनों ड्राईडॉक्स के कमर्शियल विभाग के ऑफिस पहुंचे | जहाँ पहले कमर्शियल मैनेजर से १५-२० मिनिट बातचीत हुई और फिर कमर्शियल डायरेक्टर से मुलाकात हुई | इन दो मुलाकातों के बाद मुझे नौकरी का प्रस्ताव दे दिया गया |

उस शाम मैंने अपनी पत्नी को फोन पर बताया कि अपने जहाज के इटालियन मित्र की मेहरबानी से मेरा वनवास ख़त्म होने जा रहा है | मुझे शिपयार्ड में नौकरी मिल गई है | अब तुम भी अपनी तैयारियां कर लो | १ महीने बाद से हम सब दुबई में साथ २ रहेंगे | और हाँ, शादी के १२ साल बाद, इस बार दिवाली पर हमारा पूरा परिवार एक साथ होगा।

द्वारा लिखित
Yogesh Goyal "Yogi" 
कहानी का स्रोतhttp://storymirror.com
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नकाब


Saturday, October 20, 2018

किसान की ऐक छोटी सी कहानी (भाग 02 )

majduri farmer kisaan
Majduri


(कृप्या भाग 01 
जरूर पढ़े सम्पूर्ण कहानी 
को जानने के लिए )

बस इतनी सी है कहानी 
ये सोच कर खुद की किस्मत कl दोस दे कर बैठा ही था

की मालिक का संदेश आया की हवेली पर जल्दी आना है 
मै कुछ सोचता और समझता इतना समय नहीं था
मेरे पास इसी  लिए बिना कुछ सोचे समझे 
मै मालिक के पास जाने के लिये निकल गया 

सरोस्वती की माँ पीछे से पूछी की कहाँ जा रहे हो 
आज रात में भी क्या सब भूखे ही सोयेंगे 

मैं  क्या जवाब देता
मैं  बस बिना कुछ बोले एक उदास चेहरा दिखा  कर वहाँ से निकल गया
सरोस्वती  मेरी उसी   बेटी का नाम है जिसके शादी के लिए मालिक से पैसा लिया था

सोचा मालिक के पास जा रहा हु तो आज रात मे  खाने के लिये  कुछ मांग कर ले आऊंगा

ईसी  लिए जल्दी जा रहा था ताकि जल्दी आजाऊंगा
क्यू की  सरोस्वती की  माँ तो कुछ कर नहीं पति थी 
तो सब काम बेटी को ही  करना था 
और वो अंधेरे में अच्छे से काम कर  पाती नहीं थी 

उसकी माँ का अगर पैर नहीं टुटा होता 
तो वो खुद कर लेती वैसे  बैठ कर वो बता देती है  
की  कौन   सा सामान कहा रखा हुवा है 

लेकिन  कर नहीं सकती थी उस रात  जब बारिस हुवा 
तो घर से धान का बोरा उठाते समय उसका पैर  फिसल  गया 
और वो भी काम का नहीं रहा 

खेर ये सब सोच ही  रहा था
की मालिक का  घर आगया  

मैं  अंदर गया तो काफी भीड़  जमा हुआ  था 
मालिक बोल रहे थे 

के सिर्फ तुम लोगो का नुकसान नहीं हुवा है 
मेरा भी बहुत नुकसान हुवा है ईसी लिए  कल से तुम सब जाओ और काम करो
मैं  वही नीचे बैठ कर मालिक का बात सुन रहा था 
कुछ एक घंटा बैठा तो भीड़  कम हुवा

मालिक ने देखा तो बोले  और सुरजा आगया  इधर आ मैं लम्बे कदम से  मालिक के तरफ बढ़ा 
और मालिक के कुर्सी के पास जा कर नीचे बैठ  गया
मालिक  बोलै की  देख सुरजा पूरा गांव का नुकसान हुवा है 
मेरा भी बहुत हुवा है
मई सब से  अपना उधर वापस मांग रहा हु 
मुझे नहीं पता कहा से और कैसे देगा 
मुझे बास चाहिए कुछ   दिन के अंदर
  
मैं मलिक के तरफ देखा और आँख से आसु  बहने लगा 

मैं  बोलता भी क्या उनको क्या क्या बताता  
मैं  ने बोला  मालिक मैं  कहा से पैसा दूंगा
मेरे  पास तो आज के रात तक का खाने के लिए  कोई अनाज नहीं है
मालिक बोले मई क्या करू जब जब तुम लोगो को मेरे जरूरत पड़ी तब  तुम सब को मदद किया है
आज मूझे  जरूरत है तो मैं  क्या नदी पार के लोगो से अपना पैसा वापस मांगू 
तुम लोगो से अपना पैसा ही  तो मांग रहा हु
  
खेर इतने देर मे  मालिकिन अंदर से मालिक को बोली कुछ  और मालिक बोले मरने दो इस को 

वो उनका एकलौता बेटा  था 
पूरा गांव जनता था की उनका बेटा   कुछ नहीं करता है

बुरी आदत लग गया  था  
बस  जुआ  और शराब  में  सब लुटा रहा था
मालिक इतना बोले 
देखो बहुत मुश्किल से मेरे बेटा  के लिए  
एक सरकारी योजना के दर्मिया आपदा में टूटे सरक  
और  दूसरे बांध का मरमत  करवाने का काम  मिला  है 
और पहले इस में अपना  पैसा लगा कर काम करवाना  होता है

खैर  तू ये सब  छोर  पैसा कब देगा अगर पूरा नहीं  है 
तो  आधा दे दे आधा तू महीना बाद दे दे 

मैं  मालिक को एक धीरे आवाज में बोला  
मेरा तो घर ही  उजर गया हैं 
खाने तक को अनाज नहीं है मालिक घर में 
और घरवाली का भी पैर  टूट गया है
मालिक मैं  छोटे मालिक के लिए  काम ही  कर देता हु 
कोई काम है भी नहीं 
आप को जो  सही लगे आप देख लेना
लेकिन मालिक तो पहले ही  सब को काम के लिए  बोल दिए थे 
मैं   जब आया था तो सब लोगो को काम ही  समझा रहे थे
ईसी लिए  मालिक ने बोला  अब तो आदमी सब को बोल दिया हु तेरे लिए  काम है नहीं 

अगर तेरी  बीवी काम कर पति तो उसके लिए  काम था 
खाना बने के लिए  कोई मिल नहीं रही है
क्यों की   मालिक का काम बांध के पार था बांध  को बनाने का 
तो सब को वही नदी के पार  जा कर रहना था 
और कोई औरत जा नहीं रही थी  सायद
तभी मालिकिन ने मालिक को फिर  से  अंदर से आवाज दिया 
और बोली देखो क्या कर रहा  है
मालिक मुझे बोले की  तू कल आ और चलेगये
  
मैं  बिना कुछ बोले वहा  से वापस आने के लिए  निकल गया 
जब घर आया 
तो देखा सरस्वती चूलाह   पर कुछ बना रही थी 

बिना पूछे उसके माँ ने बोला  
बेटी हो तो ऐसी  

देखो पता नहीं कहा से  साग तोर कर लाई  है 

आज रात को  यही खाआ  कर सो जाएंगे  

मैं हारा हुवा बैठा 
तो बेटी बोली  के मालिक के पास क्या हुवा
मैं  ने पानी का ईसारा  किया और सारी  बात घर में सब के सामने बताया 
घरवाली  तो रोने लगी की  
अब क्या करेंगे कहा से मालिक का पैसा देंगे
तो पीछे से धीरे से  बेटी बोली की  अगर मैं  जा कर खाना  बना दू 
तो मालिक मना  तो नहीं करेंगे ना  

मेरा मन नहीं था
मैं  कुछ जवाब देता 
की  बगल का शयाम आया घर में 
और बोला  अरे सूरज मालिक के पास देखा था तुझे
तू भी नदी के पर जाएगा क्या बांध बने के लीये
  
मैं  बोला  मालिक तो मना कर दिएे   है
और सारी  आपबीति  बताया 
तो क्या हुआ  मैं भी तो वही रहूँगा न 
जाने दे  मैं  चाहता तो नहीं था
की  जाये   पर करता भी क्या और कोई रास्ता था भी तो  नहीं 

मैं  न चाहते हुए भी बोला ठीक  है 
मैं  कल मालिक को बोलूंगा 
मालिक को जब बोला  तो मालिक बोले ठीक है जाने दे
और भोरे भोर मालिक का ट्रक्टर  
में सब को ले जाने के लिए  
मालिक ने बुलवाया  चौक पर 

और फिर  सब के साथ वो भी चली गई 

सरस्वती खाना बना रही थी  वहाँ 
बस 3  दिन ही  तो हुवा था उसको 
वहाँ  गये हुऐ
  
पर  छोटे मालिक जब  वहाँ  गए काम देखने तो 
सरस्वती छोटे मालिक को जा कर बोली 
मालिक  नमक खतम होगया है 
फिर  पता नहीं क्यू  
मालिक  ने सायद  नशा मे  उसको बोलै के बाप के घर से नमक ले कर नहीं आई  है क्या 


मैं  ये बात रो रो कर संभु को बता रहीं थी 
और तभी संभु ने बोला  तुम नदी के पर से आई  हो क्या 
चलो साइकिल पर बैठो तुम को पहले घर छोर देता हु 



भाग 03 
बहुत जल्द 
कुछ खास बिंदु भाग 03 से 
 आखिर मुझे वही क्यों मिला 
मालिक ने नशा में मेरी आबरू को रोंदने ....... 

(कृप्या भाग 01 
जरूर पढ़े सम्पूर्ण कहानी 

को जानने के लिए )












चौकीदार

https://www.bbc.com/hindi/india/2015/07/150720_congress_modi_foreign_policy_rd
politics


कुछ अपना सा लगा 

वो अंजान 

जब वो मकान किराये पर मांगने आया था 

बोला चौकीदार बन कर  रहूँगा 

पर ना जाने क्या हुआ जब से दाखिल हुवा है माकन में 

खुद ही अंजानो का मेला लगा रहा है

और मेरे पूछे  सवालो को 

अपनी कुछ मोटी क़ानूनी किताबी के पनो के जवाबो से नीचे दबा रहा है

by MONU BHAGAT

Wednesday, October 10, 2018

माँ बहुत परेशान रहती थी पार्ट -01

 
माँ बहुत परेशान रहती थी






माँ बहुत परेशान रहती थी 

ऐसा नहीं है की मैं उनकी ये वयथा समझता नहीं था मै सब समझता था 

पर करता भी क्या 

समय ने मुझे कुछ यूँ जकर रखा था 

की चाह कर भी में कुछ कर नहीं पा  रहा था

मेरी अपनी भी मज़बूरी कुछ अलग ही थी 

तभी समय भी सारी सीमा को लाँघ कर मनो कुछ हासिल करना चाह रही थी 

खैर घर मे कुछ  भी सही नहीं था  

वक्त इतना मतलबी होसकती है कभी सोचा तक नहीं था 

अगर देखा जाए तो किसे की  भी कोई ख़ास गलती थी नहीं 

सायद सभी मेरे तरह समय के प्रकोप से  जूझ रहे थे 

खास कर के पापा वो  तो हमेशा से ही ऐसे थे 

उनकी तो  मज़बूरी थी

जब से मैं पापा बोलने के लायक  हुवा 

तब से ही मैं ने उन्हें बोझ को ढोता हुवा देखा है 

हा मैं ये जनता हु की हर पिता का ये फर्ज होता है 

पर क्या किसे पिता के लिए समय इतना बेदर्द भी  हो सकता  है

सायद वो  14 के  भी नहीं थे जब उनके ऊपर बोझ को बिना उनके इजाजत के डाल दिया था

और अब वो 60 के है पर वो बोझ अभी भी वैसे ही है 

अगर कुछ बदला है तो सिर्फ वो सिर्फ उस बोझ का आकर जो पहले छोटा था  और अब मानो 

वही गोबर्धन पहाड़ हो 

मै ने कभी नहीं देखा उनको की वो खुश है उनके चेहरा पर कोई भाव नहीं दिखता था 

उस चेहरा के पीछे नजाने कितनी सारी ऐसी घटना थी जो हर वक्त घटती रहती होगी वो खुस होते भी 

 कुछ वजह  था नहीं उनके पास 

हर वक्त वो जिंदगी के ऐक ऐसी  क़िस्त को भरने की कोसिस में रेहते थे 

वो हमेशा जीत जाते थे अपने उम्र और छमता को पछाड़ कर पर वो किस्त कभी खत्म नहीं होती थी 

वो अब इतना टूट गऐ थे की वो हमारी गलती करने पर हमें टोके भी नहीं थे  क्यों की डाटते तो  वो पहले भी नहीं थे 

फिर उस रात को अचानक से एक अंजान हवा का  झोंका मेरे घर के चौखट को लाँघ कर इस तरह से घर में दाखिल हुवा 

और सब को तितर - वीतर कर दिया 

माँ बहुत परेशान थी जब वो रात की बात मुझे फ़ोन पर बता रही थी 

उसने ऐसे किया क्यों बस माँ रो -रो  कर यही पूछ रही थी

 by  मोनू भगत 

अगला भाग बहुत जल्द 
 
माँ बहुत परेशान रहती थी   पार्ट -02 

Monday, October 8, 2018

किसान की ऐक छोटी सी कहानी (भाग 01 )


किसान की ऐक छोटी सी कहानी   A small story of Farmer
किसान, Farmer




लगन का समय था बेटी शादी के लायक हो गई थी || 

जयदा पढाई लिखे कवाई नहीं थी | 

उसके बहुत सरे कारन है || 

उसमे से सब से बड़ा कारण सायद मेरा गरीब होना था | 

या फेर मेरा एक छोटी जात से होना रहा होगा || 

पुरे इलाका में बास दो ही स्कूल था | 

पर एक स्कूल नहीं जसकती थी क्यों की वो गरीब की बेटी थी | 

और दूसरे  में  नहीं  जसकती थी क्यों की 

वो उस  समाज से थी उसको इजाजत नहीं था | 

एक साथ बैठ कर अपने बाप 

के मालिक के बच्चो के साथ पढ़े || 

देखा जाए तो  दोनों म ही उसकी गलती नहीं थी |  

और  है अगर  थी तो वो उसकी किसमत ख़राब थी || 

की  वो मेरे  घर में जनम ली थी | 

खैर ये तो बहुत ही साधारण बात है | |  

शादि करने के लिए  लड़का मिला था || 

पांचवी तक पढ़ा  हुआ था ||  

पर भगवन  दिया हुवा उसके हाथ  में  मीठी का बर्तन बनाने  कला था ||  

सब बात होग्या था || 

कुछ  नहीं माँगा था बस 51  लोगो को बारात में  ले कर आने का बात 

तय हुवा 

बहुत मुश्किल से मालिक से कुछ पैसा  उधार तो मिल  गया पर  लरकावालो को शादी जल्दी करनी थी 

धान के रोपाई से  पहले शादी करना  था  

मुझे कोई दिक्कत नहीं था

पर मैं भी तो एक किसान ही था ना

अचानक से बारिश बहुत अच्छी होने की समाचार रेडियो पर आने लगी 

और कृषि विभाग के वैज्ञानिकों ने इस बार अनुमान लगाया कि बारिश अच्छे होने के कारण से धान का उपज बहुत अच्छा होने वाला है

मन में एक लालच सा हुआ कि ऐसा करते हैं कि जो पैसा बचा के रखा है उससे धान की बीज ले लेते हैं 

और कुछ खाद भी  खरीद के पहले खेती करते हैं 

और 6 और 8 महीने बाद जब फसल की कटाई हो जाएगी तो कुछ अधिक पैसा होने से बेटी की शादी भी अच्छे से कर लूंगा 

और लड़कों वालों से बात करने के लिए मैं उनके घर गया मैंने सारी व्यथा उनको बताया उन्होंने कहा की हम भी अपनी बेटी की शादी इसीलिए जल्दी करवाना

चाहते हैं ताकि बहू घर में आ जाए और लड़के की मां बीमार रहती टी हैं  तो बहुवा आकर  खेती में कुछ मदद करें 

पर मेरे लाख समझाने के बाद वह लोग मान गए मैं बहुत खुश होकर घर को आया और आते वक्त ही जो पैसे थे उनसे खेती के लिए बीज खाद सब खरीदते हुए 

आया कुछ दिनों बाद बारिश होना शुरुआत हो गई और हम खेती में लग गए कुछ समय बाद धान की फसल बहुत अच्छी लहलहा रही थी खेतों में बहुत खुश 

था और उम्मीद भी थी की बेटी की शादी बहुत अच्छे से कर लूंगा और दामाद को एक साइकिल भी दे दूंगा औकात से बढ़कर इसलिए सोचा था क्योंकि इस 

साल फसल को देख कर कुछ सोचने और करने की हिम्मत आ गई थी पर अचानक से न जाने कहां से उसी रात मूसलाधार बारिश आंधी तूफान न जाने मेरी

किस्मत को किस दिशा में मोर्ने के लिए आ धमकी सारा फसल नष्ट हो गया और हाथ में दो वक्त की रोटी खाने तक की गुंजाइश ना बचे कुछ नहीं बचा सब

बर्बाद हो गया शायद अधिक वर्षा होने के कारण से कोशिका बांध टूट गया होगा और सब का फैसला हम सबकी किस्मत ओं को लेकर वह  समंदर में समा

गई होगी कुछ था नहीं बचा तो सोचा कि जो भी है बचा हुआ कम से कम उससे बेटी की शादी तो कर लो जब बारिश की लहर कुछ कम हुई तो मैं लड़कों 

वालों के पास गया  जहां पर बेटी के शादी के लिए बात किया था जब वहां गया तो वहां का हालत देखकर कुछ बोलने कुछ पूछने का मन नहीं किया अपने 

कदमों को वहीं से वापस करके अपने घर के रास्ते को पकड़ लिया लड़का ने पहले ही शादी कर ली थी हां जानता हूं 5 से 6 महीने रुकना उनके लिए शायद 

मुश्किल रहा होगा पर समय का ऐसा मार हमारे परिवार पर पड़ा कि ना तो फसल हुई ना कुछ खाने के लिए बचा और ना ही अपनी बेटी की शादी कर पाया 

और ऊपर से साहूकार का कर्जा कुछ यू सर चढ़ गया कि मन कर रहा था कि अपनी जान ले लू  लेकिन जान ले भी लेता मेरी बीवी मेरे बच्चे उनका क्या होता  

मुझे नहीं पता इतनी सारी घटना मेरे  साथ क्यों हुई पर इतना तो है कि भगवान की लाठी में  आवाज नहीं होती है पर चोट बहुत लगती है यह मेरी किस्मत की 

  • मार थी जो मुझे कहीं का नहीं छोड़ा बस इतनी सी है कहानी


by  मोनू भगत 

نکب नकाब


नकाब 

𑜫𑜫𑜫




देखा था मैंने


तुझे खुद को बारिश की बूंदो से जदोजहद करते हुए ताकि कही वो


तुझे छू कर ना गुजर जाए


लगा  मुझे की सायद तुझे भाता नहीं


की कोई अनजान तुझे यूही छू कर गुजर जाए


पर जब हवाओ का मिजाज कुछ अलग सा  हुवा


और समय ने अपना  चादर फैलाया तो


मालूम हुवा की खा मखा मै ये सब भांप रहा था


तुझे तो  डर था की कही वो बारिश की


बूंद तेरे मुख से तेरी  नकाव को ना धो दे
by  मोनू भगत 

विद्यार्थी का अधिकार Student Rights


क्या पा लिया बन कर मै  अफसर  |

क्या  खो  दिया बन कर मैं अफसर |

इस पाने खोने के राह मे बस खो दिया मै ने  अवसर  |

मई  फेल अभी  हुवा नहीं ये खेल ख़तम हुवा नहीं  ||

एक बार फिर मै उठ खरा एक खवाब पाने के  लिए |

पर ये  खवाब मेरा  नहीं ये  रह  मेरी नहीं ||

फिर  भी मई चल पारा |

एक बात मैंने  सिख ली ||

दौर दौर कर कुछ   जीत  ली |
  
पर इस का मुझे चाह  नहीं इस दौर मे |
  
मैंने  खवाब अपनी छोर  दी ||

क्या मेरा कुछ अधिकार नहीं ??
मोनू भगत